बुधवार, 21 सितंबर 2011
गरीबदास का दर्द
पेट पीठ से लगा हुआ और मिट्टी मे सना हुआ है श्रम से कुंदन सा तपा हुआ है और लाचारी के आगे झुका हुआ है दरिद्र नरायण ना म रखा है यथार्थ है दरिद्रता और नारायण रूठा हुआ है काला चेहरा तन काला है बाँट रहा अमृत लेकिन मिलती उसको हाला है कर्तवयनिष्ठ हो कर विकास यही उसने ठाना है एहसान फरामोश पूँजीवादी उप कैसा जमाना है सरकारी आँकड़े सा जीवन और समर्पण सुविधाओ का केवल आंडबर निर्वस्त्र लुटा पिट शोषित कुपोषित फिर भी कैसे जीवित ये भला निरक्षर उन ज्ञानी से जो इन्हे बैकबड कहते है पर भूल जाते है इनके इशारो से ही विकास के पहिये चलते है इनका सच सच नही लगता सरकार का धोखा लगता है भारत मे गरीब जिँदगी मे नही फाइलो मे तरक्की करता है गरीबी मिटाओ ये नारा बेमानी है प्रजापालक की आँखो मे ना शर्म है ना पानी है
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बालकिशन जी,
जवाब देंहटाएंआपके ब्लॉग पे कविताएँ पढी। अच्छी हैँ लेकिन बहुत लम्बी और लेख जैसी हैँ जो पाठकोँ को ग्राह्य नहीँ होती शायद!
लिखते रहेँबालकिशन जी,
आपके ब्लॉग पे कविताएँ पढी। अच्छी हैँ लेकिन बहुत लम्बी और लेख जैसी हैँ जो पाठकोँ को ग्राह्य नहीँ होती शायद!
लिखते रहेँ